स्वयं के मान के मर्दन का नाम है मार्दव धर्म

जैनशिल्प समाचार

स्वयं के मान के मर्दन का नाम है मार्दव धर्म

जैनशिल्प समाचार मृदुता का भाव मार्दव है, सरलता है। सरल स्वभावी मार्दव स्वभावी व्यक्ति सुगति को प्राप्त होते हैं। मानी- घमण्डी लोगों के इस लोक व्यवहार में भी बहुत दुश्मन बन जाते हैं। उन्हें कोई पसंद नहीं करता। सरacल-सज्जन व्यक्ति को सब लोग अच्छी निगाह से देखते हैं, उनके कार्य भी सुगमता से संपन्न होते जाते हैं। मान कषाय के अभाव में मार्दव धर्म प्रकट होता है। जैनाचार्य समन्तभद्र स्वामी ने मान कषाय के आठ कारण गिनवाये हैं, जिनपर व्यक्ति मान-अभिमान-घमंड करता है। वे हैं- ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धिं तपो वपुः। अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः।। आठ प्रकार का मद होता है- ज्ञान का मद, पूजा का मद, कुल व जाति का मद, बल का मद, ऋद्धि का मद, तप का मद, और शरीर का मद। ज्ञान मद का प्रसिद्ध किस्सा है - एक प्रोफेसर साहब बहुत पढ़े लिखे थे। उन्हें अपनी शिक्षा का अहंकार था, वे सोचते थे, इसके बल पर कोई भी कार्य सिद्ध किया जा सकता था। एक दिन उन्हें नदी पार करने का अवसर आया, नाविक से मिले व नाव में बैठ गए। बैठते ही थोड़ी अकड़ मारने लगे, अहम् दिखाने लगे। क्यों रे, कहां रहता है, क्या करता है ? ढंग से बैठा कर। होता है किन्हीं के कपड़े ही बढ़िया होते हैं पर मन उतना हैण्डसम नहीं होता। सामने वाले की उतारने पर लगा रहता है। प्रोफेसर नाविक से पूछते हैं क्यों तुझे गणित आता है ? नाविक ने कहा, नहीं पढ़ा क्योंकि बचपन से इसी काम में लगा हूँ। प्रोफेसर साहब ने कहा ओहो ! फिर तो तू समझ तेरी 25 प्रतिशत जिन्दगी पानी में चली गई। अब समझ गए कि पढ़ा लिखा नहीं तो आगे पूछा- तुम्हें विज्ञान - भूगोल आता है ? नाविक बिचारा गरदन झुकाते हुए संकोच से कहता है नहीं । प्रो. ने फिर कहा- 50 प्रतिशत जिंदगी पानी में गई। क्या काम का जीवन है, कुछ ज्योतिष - मंत्र- तंत्र भी आता है कि यूँ ही? नाविक ने शब्द ही पहली बार सुने थे, क्या बताता? अब तो तू गया काम से समझ ले 75 प्रतिशत जिन्दगी पानी में चली गई। यह बातें चल ही रहीं थीं इतने में नदी में तूफान आ गया। हवा के थपेड़ों के संग नाव डगमगाने लगी। अब प्रोफेसर साहब घबड़ाने लगे, नाविक ने बड़ी विनम्रता से पूछा- साब! क्या आपको तैरना आता है ? प्रो. ने कहा नहीं। मुस्कुराते हुए नाविक बोला- मेरी तो 75 प्रतिशत जिन्दगी पानी में चली गई पर आपकी तो 100 प्रतिशत जिन्दगी पानी में जाने वाली है । जीव का स्वभाव ज्ञान है, कम - ज्यादा सबके पास है, यह पक्का है पर यह मद करने के लिए नहीं, सदुपयोग करने के लिए है। दूसरा पूजा का मद- लोक में प्राप्त पूजा-प्रतिष्ठा, आदर सम्मान, यशकीर्ति अथवा राजा-मंत्री, सेठसाहूकार आदि रूप पदों का गजब का घमण्ड होता है। कब पांसा पलटे और कब कुर्सी से उतर जाए क्या भरोसा ? जब जो मिलता है, फूलना नहीं, बल्कि अच्छे से कर्तव्य निभाना चाहिए। नादान प्राणी अपने नाम का मान करने लगते हैं। कुल का मद- अमुक परिवार का हूँ। मेरे दादा अमुक हैं, पिता के जोर पर दूसरों पर हक जताना, रौब दिखाना । कुल का गौरव करें, अहंकार नहीं। माता-पक्ष के गीत गाते रहते हैं। अच्छा मिल गया है सौभाग्य से। थोड़ा मिल क्या गया कि किसी को कुछ नहीं समझते। उच्च कुल वंश का अभिमान नहीं करना चाहिए। बल पर घ्मण्ड करने वाले बड़े-बड़े पहलवान नहीं रहे। अंत समय में ‘गामा पहलवान को मक्खी उड़ाने का भी बल नहीं रहा था। एक विदेशी पहलवान को कुछ ज्यादा ही अकड़ थी, मांसाहार करता था, कहता भारतीयों को तो यूँ ही चटनी बना दूंगा। सब जानते हैं भारतीय पहलवान विजेन्द्रसिंह जो सिर्फ दूध पीता था, उसके सामने वह मांसाहारी चित्त हो गया, शाकाहारी जीत गया। परंतु ध्यान रखिये, यदि आप अपनी शक्ति का दुरुपयोग करेंगे तो प्रकृति आपका बल छीन लेगी । आचार्य श्री सुनरलसागरजी कहते हैं कि यह शाश्वत सिद्धान्त है कि मानी जीव नियम से गिरता ही है । मनोबल, वचनबल, कायबल, धनबल, जनबल, सैन्यबल, अस्त्रबल, मित्रबल आदि सभी क्षयोपशमिक हैं जो घटता-बढ़ता है, अनन्त वीर्यपना शाश्वत है । शरीर मद- शरीर के मद का कभी कभी गजब का पागलपन देखने को मिलता है। उसका मद करना ठीक नहीं है। जो आज विश्वसुंदरी हैं, कल उन्हें पीछे रह जाना है। वपु अर्थात् शरीर का मद नहीं करें, दान करें, यात्रा करें, धर्मध्यान करें, व्रतों का पालन करें। मद इतनी जल्दी पीछा नहीं छोड़ता। तप मद- मान लो, शरीर को अनशनादि की तपस्या कर सदुपयोग भी किया तो भी मन में कहीं तप का मद आ जाता है, ‘मैंने इतने उपवास किए’, अमुक नीरस किए तो फिर तमुक जो नहीं करता उसका उपहास कर देते हैं। ऐसा मद फिर सम्यग्दर्शन का घात करता है। एक मुनिराज के तप के घमण्ड के कारण पूरी द्वारिका नगरी भस्म हो गई थी और वे स्वयं उसमें भस्म हो गये थे।  रावण जैसों का घ्मण्ड नहीं रहा, सामान्य व्यक्ति की तो बात ही कहां है। मद-मान-घमण्ड कभी अच्छा नहीं होता, इनका त्यागकरना सरल वृत्ति अपनाना ही मार्दव धर्म है।