धर्म प्रवृत्ति में आगे बढ़ना है तो कान का सदपयोग करें : आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी

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धर्म प्रवृत्ति में आगे बढ़ना है तो कान का सदपयोग करें : आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी

सूरत। शहर के पाल में श्री कुशल कांति खरतरगच्छ जैन श्री संघ पाल स्थित श्री कुशल कांति खरतरगच्छ भवन में युग दिवाकर खरतरगच्छाधिपति आचार्य श्री जिनमणिप्रभसूरीश्वरजी म. सा. ने बुधवार 28 अगस्त को प्रवचन में कहा कि दुलर्भ वस्तु को प्राप्त करके अपने अंदर की प्रसन्नता होती है। दुलर्भ शब्द के दो अर्थ है एक हर सभी को नहीं मिलता और दूसरा आसानी से नहीं मिलता। बहुत पुरूषार्थ करना पड़ता है। परमात्मा की वाणी का श्रवण बहुत जरूरी है। श्रवण के तीन भेद क्रिया, श्रवण कला और श्रवण योग। उन्होंने कहा कि हमारे शरीर में हर अंग बहुत महत्वपूर्ण है। हर एक अंग की एक क्रिया, उपयोगिता है। लेकिन दो अंग बहुत उपयोगी है आंख और कान। आंख से देखना और कान से सुनना। पाप हमेशा आंख से शुरू होता है। धर्म हमेशा कान से शुरू होता है। धर्म के लिए कान महत्वपूर्ण है, पाप के लिए आंख महत्वपूर्ण है। हालांकि काम दोनों से होते है। पाप से बचना है तो आंख पर नियंत्रण जरूरी है। धर्म प्रवृत्ति में आगे बढ़ना हो तो कान का सदा सदा सदपयोग करें। श्रवण क्रिया का अर्थ होता है कान से सूनना, श्रवण कला का अर्थ होता है इन दोनों का योग होना और श्रवण योग का अर्थ होता है कान बुद्धि और हदय का योग होना। कानों पर विवके का पहरेदार बिठाना जरूरी है। क्या सूनना है वह खुद तय करें। शब्द बाद में भाव पहले होने चाहिए।