लोभ का अभाव शौच धर्म है - ‘पाप का बाप क्या है।’

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लोभ का अभाव शौच धर्म है - ‘पाप का बाप क्या है।’

- डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’

शौच अर्थात् शुचिता, पवित्रता। तन की पवित्रता नहीं, शरीर की पवित्रता नहीं, मन की शुचिता को शौच धर्म कहा है। ऋषि-मुनियों ने मन को लोभ से रहित करने, मन में अधिक लोभ नहीं होने को शौच-शुचिता कहा है। सभी पाप, संग्रह आदि मन मन में विकार आने के ही परिणाम हैं, जिसका मन स्वच्छ हो गया उसके लोभ आदि विकार आ ही नहीं सकते। मन की शुचिता, लोभ का अभाव होने पर शौच धर्म प्रकट होता है। लोभ सभी पापों का पिता कहा है, अर्थात् लोभ के वश व्यक्ति कोई भी पाप करने को तत्पर हो जाता है। आज लोभ के कारण ही ठगी, चोरी, हिंसा में लिप्त हो रहे हैं, यहां तक कि लोभ के कारण अपने सगे संबंधियों को मौत के घाट भी उतार देते हैं।

लोभ के अनेक मुखोटे हैं, वह उन मुखोटों को लगाकर हमारे पास आता है और हम पहचान भी नहीं पाते। वह हमारी आत्मा को लोभ में फंसाकर अपवित्र बना देता है और उत्तम शौचधर्म से हमें दूर कर देता है। लोभ किसी भी रूप में हो, नाम कुछ भी हो, लेकिन वह पतित करने वाला ही होता है। चाहे वह धन, वैभव, स्त्री, परिवार, शरीर यश या फिर किसी पद प्राप्ति का ही क्यों न हो, हमें इन्हें समझना होगा और अलग-अलग नाम वाले मुखौटे पहनकर आने वाले लोभ से अपने आपको बचाना होगा, तभी उत्तम शौच धर्म की प्राप्ति संभव है।

एक उदाहरण आता है- एक उच्चवर्गीय युवक का विवाह हो गया, वह शिक्षा प्राप्त करने बनारस जाता है। वहां कुछ वर्षों रहकर सभी विषयों की शिक्षा प्राप्त करके घर लौटता है। उसकी पत्नी उससे पूछती है- आप क्या पढ़कर आये हैं? उसने बताया - ‘चारों वेद, पुराण, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद आदि सभी विषय पढ़कर आया हूं, तुम पूछो कुछ पूछना चाहती हो।’ पत्नी ने कहा- ये सब बेद पुराण तो मैं नहीं जानती, तुम तो यह बताओ कि ‘पाप का बाप क्या है।’ युवक ने कहा सभी विषय पढ़े पर यह नहीं पढ़ा। वह ये पाठ पढ़ने पुनः जाता है। काशी की गलियों में घूमते हुए उसके मन्तव्य को एक वेश्या ने जान लिया। उसने युवक को बुलाया कहा तुम्हारी क्या समस्या है? युवक ने कहा ‘पाप का बाप क्या है’ पाठ पढ़ना है। वेश्या ने उससे कहा आओ मेरे चौबारे पर ये पाठ तुम्हें पढ़ाऊंगी, युवक ने मना कर दिया कि मैं कुलीन हूं, तूं वेश्या मैं तेरे चबूतरे पर नहीं आ सकता। वेश्या ने 100 रु. की पेशकश की, युवक मान गया। वेश्या ने कहा तुम चलकर हारे थके आये हो कुछ खा-पी लो, सूखा सामान देती हूं तुम बना लेना, फिर तुम्हें पाठ पढ़ाऊंगी, इसके लिए मैं 200 रु. तुम्हें दूंगी। 200 के लालच में युवक मान गया। पुनः वेश्या बोली 500 मोहरें दूंगी मुझे भोजन बना देने दो, 500 के लालच में युवक वेश्या से भोजन बनवाने को मान गया। ज्यों ही वह कुलीन युवक खाना खाने लगा वेश्या बोली जब मैंने बना ही दिया है तो एक ग्रास मेरे हाथ से खा लीजिए मैं भी पवित्र हो जाऊंगी इसके लिए मैं तुम्हें 1000 मोहरें दूगीं, तभी तुम्हें पाठ भी पाप का बाप क्या है यह पाठ भी पढ़ा दूंगी। युवक ने सोचा यहां कोई देख तो रहा नहीं और 1000 मोहरें भी मिल रहीं हैं, पाठ भी मिल जायेगा। वह लालच में आकर वेश्या की बात मान गया। वेश्या ने भोजन का एक ग्रास उठाया, खिलाने लगी, युवक ने खाने को मुंह खोला कि वेश्या ने युवक के गाल पर एक चांटा जड़ दिया। युवक ने कहा तूने ये क्या किया, मुझे चाटा क्यों मारा। वेश्या बोली यही तो तुम्हारा सबक है, जो मैं पढ़ाने वाली थी। लोभ-लालच ही पाप का बाप है। तुम मेरे चबूतरे पर आने को भी तैयार नहीं थे, अपवित्र मान रहे थे और लोभ में पड़कर मेरे हाथ का बना और मेरे ही हाथ से खाने को भी तैयार हो गये। 
लोभ में पड़कर व्यक्ति बड़े से बड़े पाप कर बैठता है। अतः अधिक लालच में न पड़कर शौच धर्म अपनाना चाहिए।