सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात् - किसी की जान बचाने के लिए बोला गया असत्य भी सत्य होता है

jainshilp samachar

सत्यं ब्रूयात् प्रियम् ब्रूयात् - किसी की जान बचाने के लिए बोला गया असत्य भी सत्य होता है

उत्तम सत्य आत्मा का एक गुण है। जैसे किसी पर बनावटी आवरण पड़ा हो और वह हट जाये तो वास्तविक तस्वीर निकल आती है, वही सत्य है। जिसमें कोई, मिलावटी न हो, बनावटीपन न हो, कोई लाग-लपेट न हो वह सत्य है। ऋषि- मुनियों ने कहा है- ‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।’ सत्य बोलो पर प्रिय बोलो, ऐसा सत्य भी मत बोलो जो अप्रिय हो अर्थात् जिससे किसी प्राणी का घात होता हो, प्राणी की हिंसा होती हो ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए।
इस संबन्ध में एक उदाहरण आता है- एक राजकुमार को ज्ञात था कि अमुक संत मन की बात जान लेते हैं। वह उन्हें झूठा साबित करने के लिए एक चिड़िया लेकर भरी सभा में उनके सामने गया। पूछता है यह चिंडिया जीवित है या मृत? वह जीवित चिड़िया के गले पर हाथ का अंगूठा लगाये था, सोच कर गया था यदि उन्होंने बोला जीवित है तो अंगूठा से गला दबा कर मार संत को झूठा सावित कर देगा। और मृत बोला तो जीवित तो है ही। सन्त सारी बात समझ गये। उन्होंने राजकुमार के प्रश्न के उत्तर में कहा- ‘तुम यह मृत चिड़िया हाथ में लिये हुए हो। राजकुमार ने तुरत मुट्ठी खोल कर चिड़िया उड़ा दी और कहा इन संत को कुछ ज्ञात नहीं हो पाता ये झूठे हैं, देखो थोड़ी सी बात भी नहीं बता सके, इनके विषय में व्यर्थ कहा जाता है कि ये मन की बात जान कर सच बता देते हैं। संत ने कहा- राजकुमार! मैं तुम्हारे मन की सारी बात जान गया था, यदि में उसे जीवित बता देता तो तुम उसे मार देते। मेरे एक झूठ से यदि उस जीव की जान की रक्षा हो गई तो यह झूठ भी सत्य की श्रेणी में आता है। इसीलिए कहा है कि सत्य बोलें किन्तु प्रिय बोलें।
जैन दर्शन में सत्य का अर्थ मात्र ज्यों का त्यों बोलने का नाम सत्य नहीं है, बल्कि हित-मित-प्रिय वचन बोलने से है। हितकारी वचन यानि जिसमें जीव मात्र की भलाई हो, कहने का अभिप्राय ये है कि जिन वचनों से यदि किसी जीव का अहित होता हो तो वे वचन सत्य होते हुये भी असत्य ही है। मित यानि मीठा बोलो अर्थात् कड़वे वचन, तीखे वचन, व्यंग्य परक वचन, परनिंदा, पीड़ाकारक वचन सत्य होते हुये भी असत्य ही माने गये हैं। प्रिय वचन यानि जो सुनने में भी अच्छे लगे, ऐसे वचन ही सत्य वचन हैं। हित, मित और प्रिय वचन बोलने की ही शास्त्र अनुमति देते हैं। हित अर्थात् अपने और दूसरों के हितकारी वचन, मित अर्थात् सीमित, अल्प केवल जितनी आवश्यकता हो उतने वचन बोलना और प्रिय के लिए तो कहा है- कटुक- कठोर- निंद्य नहिं वयन उचारै। हमारा राष्ट्रीय वाक्य है -‘सत्यमेव जयते’, सत्य की हमेशा विजय होती होती है, सत्य कभी न कभी उजागर हो ही जाता है। सत्य के विषय में कहा जाता है- दाबी-दूबी न रहै, रुई लपेटी आग। रुई में आग लगी हो तो उसे कितना भी लपेट कर ढक दिया जाय, धीरे धीरे सुलगते सुलगते वह विकराल रूप लेकर सामने आ ही जाती है। एक सत्य को बोलने के लिए व्यक्ति को अनेकों झूठ बोलना पड़ते हैं, और जो एक बार सत्य बोल देता है, वह निश्चिंत रहता है। हमें नित्य व्यवहार में भी यथा संभव सत्य बोलने का प्रयत्न करना चाहिए।

- डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’